सखी..

हे सखी तुम क्यों नहीं उठती

मैं रोज उठता हूँ तो लगता है आज बोल दोगी । तुम्हारा यू खामोश लेटे रखना बर्दाश्त नहीं होता

मैं चिड़िया होता तो तुम्हे दूर अंतरिक्ष में ले जा कर फिर से वही बना देता।

मेरा रिश्ता कोई इस जन्म का नहीं यह जन्मोजनम का है कभी मैं तुम बनता कभी तुम मैं बनती ।

तुम मुझे इस जनम में छोड़ नहीं सकती ।
आत्मा के सम्बंध को शरीर कैसे मिटा सकता है।

शास्वत,अमरत्व आत्मा वही है जो तुममें है शरीर इसी धराधाम का है यह यही रह जायेगा।

जो आया वह जायेगा निश्चित ,बस कोई पहले कोई बाद। जो पहले जाय वो दूसरे का इंतजार करें।

जब भी मैं दूर ऊंचाइयों में देखता हूँ तुम ही तुम दिखाई देती हो ,मेरे आस-पास हो ऐसा न जाने क्यूँ महसूस होता है।

यह आत्मा ही ईश्वर है तुम मेरी अमृत कल्पनाओं की सखी हो मैं वही हूँ जो तुम हो। सिर्फ पर्दे रूपी अज्ञान का भेद है… आओ न मैं तुम हो जाऊं😥

गांगेय

17 thoughts on “सखी..

  1. ओह। कुछ रिश्ते हम छूटने पर भी वर्षों संग रखते हैं। आपकी ये रचना बहुत कुछ कहती है।💔

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