जीवन कैसे जिये ! इसकी उमंग,तरंग और प्राण तुम हो।तुम्हारे होने मात्र से इसे ऊर्जा का पुंज मिल जाता है। शरीर की कोई भाषा नहीं है जबकि आत्मा सभी भाषाएं आत्मसात कर लेती है। समझना आत्मा को है किंतु समझाते सभी है। अपने को विद्वान सभी कहते है पर ज्ञान किसी को नहीं है।
प्रेम किसे कहू ? इसमें क्या हो जाता है जो प्रेम को पाने के लिए मन व्याकुल हो जाता है। जीवन,मरण,सृजन शाश्वत है जिसमें कर्ता हम नहीं है लेकिन दिखाते है हम कर्ता है। मनुष्य सदा से भगवान बनाना चाहता है देहाभिमान की तुष्टि यही है। वह “मैं” में विलीन होने को आतुर है।
यहाँ “मैं” एक भौतिक यूनिट का प्रतिनिधित्व करता है।
जबकि उपनिषदों में वर्णित “मैं” आत्मा और स्वयं के स्वरूप को निर्धारित करता है।
मन के आंदोलन में सभी इंद्रियां सिर्फ कार्यकर्ता बनी नजर आती है आत्मा पर अहं का पर्दा नशी कर दिया जाता है।
प्रभूत होने वाला जगत किसी का हो सकता है लेकिन मन की दौड़ कहती है इसे बेहतर हम बनाते है ईश्वर उत्पन्न करके छोड़ देता है। जो विकास दिखता है वह मेरे द्वारा किया गया है।
हम अनंत की कक्षा में विचरण करते हुए सूर्य से ज्यादा ताप संचरित करना चाहते है। भूमि की दूरी सेंकड में मापना चाहता है। मन है कि बन्धन में डालता है और वह परमस्वतंत्र रहना चाहता है। आत्मचिंतन स्वयं में हो सकता है लेकिन तब जब हमें आत्मा का बोध हो। यह बोध ज्ञान से संभव है ज्ञान कैसे आये ?
संस्कार संसार को ज्ञान से गुंजायमान कर सकता है बस तुम मन को तैयार करो।