कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार होकर बदहाल कैसे हो सकती है कृषि उपार्जन की ,किसान अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गया है? सरकार चुनाव के दबाव में वापस कदम खींचे। सरकार द्वारा वापस लिए गये तीन कानून
१. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य संवर्धन और सरलीकरण विधेयक (2020) यह कानून निकट भविष्य में सरकारी मंडियों की प्रासंगिकता को शून्य कर देगा। निजी क्षेत्र को बिना पंजीकरण और बिना किसी जबाबदेही के कृषक उपज के क्रय विक्रय की खुली छूट। अधिक से अधिक कृषि उपज की खरीदारी निजी क्षेत्र करें।
२. कृषि कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक ( 2020) इसी के तहत कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा। बड़ी कम्पनियों और भारी भरकम मशीनीकृत खेती के सामने कैसे भूमिहीन,संसाधनहीन किसान कैसे टिकेगा।
३. आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक (2020) निजी क्षेत्र को असीमित भंडारण की छूट। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश की छूट। यह एक प्रकार से जमाखोरी और कालाबाजारी को मान्यता देना है।
2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 26.3 करोड़ परिवार खेती किसानी के कार्य में लगे हुये है। इसमें महज 11.9 करोड़ किसान के पास खुद की जमीन है जबकि 14.43 करोड़ किसान भूमिहीन है। भूमिहीन किसान बड़ी संख्या में बटाई पर खेती करते है। भूमि के मालिक से खेती के बदले आधा उपज दिया जाता है। श्रम और भूमि से मिलकर उपज पर आधा-आधा बटवारा।
भारत की GDP में कृषि का हिस्सा 14 फीसदी है वही इस पर आश्रित जनसंख्या कुल का 50 फीसदी है।

किसान की सबसे बड़ी समस्या है उसका असंगठित होना। नेता भी जानता है किसान अपने हकूक के लिए इकट्ठा नहीं होगा इस उसके हित के कानून कभी पास नहीं किये जाते। यह जरूर है उसे खेती से हतोत्साहित करने के कानून बनाये जाते है।
बिजनेसमैन कार्टेल बना कर अपने उत्पाद का मूल्य बढ़ा लेता है वह किसान को सरकार द्वारा घोषित MSP के इर्द गिर्द रहना पड़ता है।
MSP की व्यवस्था भी ऐसी है कि सामान्य किसान की पहुँच से दूर रहती है जैसे उत्तर प्रदेश में धान की कटाई अक्टूबर के अंतिम तक कटाई शुरू हो जाती है जबकि MSP पर खरीद दिसम्बर में शुरू होती है। उसमें में कहा जाता है कि हाइब्रिड धान नहीं लिया जायेगा। सिर्फ मंसूरी लिया जायेगा। जिस किसान ने मंसूरी धान की फसल नहीं की है उसका क्या हो। MSP खरीद मात्र एक या ज्यादा से ज्यादा डेढ़ महीने तक धान में होती है। यही आलम गेंहू का भी है।
MSP को पूरे फसल सत्र के लिए लागू क्यों नहीं किया जाता है। उसमें सभी तरह के धान और गेहूं की छूट मिलनी चाहिए।
किसान अपने मूल्य का निर्धारण कब तक मंडी और सरकार से करवाता रहेगा। भारत द्वारा WTO में हस्ताक्षर करने के साथ स्पष्ट कर दिया गया है कि वह उद्योग और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देगा। प्राथमिक क्षेत्र कृषि को हतोत्साहित करेगा।
सरकारें भी कृषि नीति में सुधार की जगह मुफ्त बाटने में लगी है यह मुफ्त उसे वोट दिलायेगा कृषि सुधार नहीं।
किसान के 2 एकड़ खेत का मूल्य 2 करोड़ रुपये हो सकता है किंतु इससे उसका जीवन नहीं चल सकता। जबकि एक चपरासी 5 लाख घूंस देकर खुशहाल जीवन के साथ प्रॉपर्टी बना लेता है।
किसान विवश और मजबूर है उसकी सुनवाई कही नहीं है उत्तर प्रदेश में किसान की मेहनत का आधा छुट्टे जानवर खा जा रहे है छुट्टे जानवर की कोई व्यवस्था नहीं है बस घोषणा जरूर की जाती है।
आप की राजनीति पक्ष-विपक्ष, राष्ट्रवादी-सेकुलर की हो सकती है लेकिन किसान वास्तव में दुःखी है उसकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल रहा है। 5 एकड़ खेती वाला किसान भी अपने किसानी की आय से गुजारा नहीं कर पा रहा है वही एक छोटी नौकरी वाला,व्यापार वाला खुश है यह अंतर आखिर किसने पैदा किया।
उत्तम खेती कही जाने वाली कृषि,चाकरी भीख निदान वाले से ही भीख मांगने पर मजबूर है। उसे उर्वरक की बदहाली से लेकर,बीज,बिजली के लिए तरसना पड़ता है।